कौन थीं उषा मेहता, जिससे प्रेरित है सारा अली खान की फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’

कौन थीं उषा मेहता (Usha Mehta) और उनका क्या है कांग्रेस रेडियो से संबंध, जिनसे प्रेरित है सारा अली खान की फिल्म ऐ वतन मेरे वतन

Usha Mehta and Sara Ali Khan

कांग्रेस रेडियो चलाकर स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका निभाने वाली उषा मेहता (दाएं) के जीवन से प्रेरित है सारा अली की फिल्म ऐ वतन मेरे वतन।

Usha Mehta and Sara Ali Khan’s Ae Watan Mere Watan: सारा अली खान स्टारर ऐ वतन मेरे वतन फिल्म अमेजन प्राइम पर 21 मार्च (गुरुवार) को रिलीज हुई। ये ऐतिहासिक बायोग्राफिकल फिल्म स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता के जीवन से प्रेरित है।

उषा मेहता ने कांग्रेस रेडियो स्थापित किया था, जोकि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान चलाया गया एक अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन था।

आइए जानें कौन थीं उषा मेहता, जिनसे प्रेरित है सारा अली खान की फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन।’

उषा मेहता का जन्म 25 मार्च 1920 को गुजरात के सारस में एक गृहिणी घिलिबेन मेहता और अंग्रेज सरकार में जिला स्तर के न्यायाधीश हरिप्रसाद मेहता के घर हुआ था।

बचपन से ही उन्होंने अपने परिवार को भारत की आजादी के लिए लड़ते देखा था।

अपने परिवार से प्रेरणा लेते हुए महज आठ साल की उम्र में उषा मेहता ने भारत में सुधारों की सिफारिश करने के लिए जॉन साइमन के नेतृत्व में बनी अंग्रेज समिति के खिलाफ अपने पहले विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

बीबीसी न्यूज के मुताबिक, उषा ने अंग्रेजों के खिलाफ किए गए अपने पहले विरोध प्रदर्शन की चर्चा 1997 में नवीन जोशी को दिए एक इंटरव्यू में की थी, जिसका जिक्र जोशी की किताब ‘फ्रीडम फाइटर्स रिम्बेंबर्ड’ में है। उषा ने कहा था, ”अंग्रेजों के खिलाफ जो पहला नारा मैंने लगाया था, वह था, साइमन वापस जाओ।”

अपनी किशोरावस्था में उषा ने सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लिया – चरखा चलाकर सूती बनाने से लेकर नमक कर के विरोध और अंग्रेजों की चीजों के बहिष्कार तक, उन्होंने गांधी जी के हर आह्वान में हिस्सा लिया।

बाद में एक इंटरव्यू में उषा ने कहा था, ”एक बच्चे के रूप में भी मेरे अंदर कानूनों को तोड़ने और देश के लिए कुछ करने का संतोष था।”

भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होना

1930 में उनके पिता के रिटायर होने के बाद मेहता का परिवार बॉम्बे (अब मुंबई) आ गया।

भारत छोड़ो आंदोलन 8 अगस्त 1942 को शुरू हुआ था। महात्मा गांधी ने बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में दिए अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, ”करो या मरो। हम या तो भारत को आजाद कराएंगे या कोशिश करते हुए मर जाएंगे।”

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान देश भर में बड़े पैमाने पर नागरिक अवज्ञा हुई, जिनमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ सार्वजनिक प्रदर्शन और यहां तक ​​कि कुछ क्षेत्रों में समानांतर सरकारों की स्थापना भी की गई, जिसके कारण हजारों प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी हुई।

अखिल भारतीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व – महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और वल्लभाई पटेल – को भी अगले दिन गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस पार्टी पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।

यही वह समय था जब औपनिवेशिक शासकों के क्रूर दमन के बीच युवा नेताओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया।

उस समय 22 वर्षीय उषा मेहता बंबई में कानून की छात्रा थीं और भारत के स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने की इच्छुक थीं। उन्होंने खुद को आंदोलन के लिए समर्पित करने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी।

मेहता ने बाद में एक इंटरव्यू में उषा ठक्कर को बताया था, “हम इस आंदोलन की ओर आकर्षित हुए थे।” (इसका जिक्र बाद में ठक्कर ने अपनी किताब ‘कांग्रेस रेडियो: उषा मेहता एंड द अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन ऑफ 1942’ में किया था।)

भूमिगत रेडियो स्टेशन की स्थापना

मेहता ने 1969 में एक इंटरव्यू में कहा था, जब “प्रेस पर ताला लगा दिया गया था और समाचारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।” तो उन्हें कई लोगों के उलट सार्वजनिक प्रदर्शनों पर भरोसा नहीं था।

मेहता ने कहा, “एक ट्रांसमीटर जनता को होने वाली घटनाओं से परिचित कराने में काफी मदद करता है।”

हालांकि, रेडियो स्टेशन स्थापित करना आसान नहीं था, खासकर उस समय जब अंग्रेजों ने देश भर में सभी शौकिया रेडियो लाइसेंस निलंबित कर दिए थे। अंग्रेस सरकार ने ऑपरेटरों को सभी उपकरण अधिकारियों को सौंपने या कड़ी सजा का सामना करने की चेतावनी दी थी।

न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, बाबूभाई खाकर, विट्ठलभाई झावेरी और चंद्रकांत झावेरी जैसे अन्य कार्यकर्ताओं की मदद से, उषा मेहता ने एक घोस्ट ट्रांसमीटर हासिल किया।

उस उद्यम के लिए पैसे जुटाना, तकनीकी सहायता और उपकरण हासिल करना उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी। तब उनकी मदद के लिए नरीमन प्रिंटर आगे आया, जिसके पास युद्ध से पहले शौकिया ट्रांसमिटिंग लाइसेंस था। नरीमन प्रिंट ने प्रतिबंध के बावजूद अपने घोस्ट ट्रांसमीटर का एक हिस्सा मेहता को उपलब्ध कराया।

हालांकि, नरीमन प्रिंटर की प्रतिष्ठा कुछ हद तक संदिग्ध थी। राष्ट्रीय आंदोलन या कांग्रेस पार्टी से कोई वैचारिक जुड़ाव नहीं होने के कारण, प्रिंटर ने कांग्रेस रेडियो टीम की मदद केवल पैसों के लिए की थी।

फिर भी, अगस्त में चौपाटी के सी व्यू अपार्टमेंट की सबसे ऊपरी मंजिल पर एक कार्यशील रेडियो ट्रांसमीटर लगा दिया गया। शाम को, मेहता पहली बार लाइव हुईं और कहा, “यह कांग्रेस रेडियो भारत में कहीं से 42.34 मीटर (एक वेबलेंथ) पर बोल रहा है।”

बीबीसी के मुताबिक, शुरुआत में टीम दिन में दो बार हिंदी और अंग्रेजी में प्रसारण करती थी, बाद में इसे घटाकर शाम 7.30 से 8.30 बजे के बीच सिर्फ एक बार कर दिया गया।

कांग्रेस रेडियो तुरंत हिट हो गया और भारतीयों के लिए सबसे पसंदीदा समाचार स्रोत बन गया।

मेहता ने उषा ठक्कर को दिए इंटरव्यू में कहा था, “हम सबसे पहले चटगांव बम हमले, जमशेदपुर हड़ताल और बलिया में होने वाली घटनाओं की खबर देते थे। हमने आष्टी और चिमूर में हुए अत्याचारों का पूरा विवरण प्रसारित किया। तत्कालीन परिस्थितियों में समाचारपत्रों ने इन विषयों को छूने का साहस नहीं किया; “केवल कांग्रेस रेडियो ही आदेशों की अवहेलना कर सकता था और लोगों को बता सकता था कि वास्तव में क्या हो रहा था।”

समाचारों से परे जाकर, गुप्त रेडियो स्टेशन ने राजनीतिक भाषण भी प्रसारित किए, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की जानकारी प्रसारित की और देश भर से आए संदेश साझा किए।

रेडियो कांग्रेस को जारी रखने का संघर्ष

मेहता के लिए अंग्रेज सरकार से बचकर कांग्रेस रेडियो चलाना बहुत मुश्किल था। इसलिए मेहता और उनके साथियों ने अपनी पहचान उजागर होने से बचने के लिए हरसंभव कदम उठाए। वे रोज अपने प्रसारण की जगह स्थान बदल देते थे।

एक पुलिस वैन अक्सर उनका पीछा करती थी, इसलिए उन्हें अपने ठिकाने को छुपाने के लिए इधर-उधर घूमना पड़ता था। उन्होंने प्रसारण स्टेशन के अलावा एक रिकॉर्डिंग स्टेशन भी चलाया और खतरे को कम करने के लिए कुछ समय के लिए दो ट्रांसमीटरों का उपयोग करके संदेश प्रसारित किए।

आधिकारिक ऑल इंडिया रेडियो (AIR), जिसे अन्य कार्यकर्ता “भारत-विरोधी रेडियो” कहते हैं, का प्रसारण बाधित होने के बाद कांग्रेस रेडियो टीम ने लगातार प्रतिक्रिया देने का प्रयास किया।

हालांकि 12 नवंबर 1942 को प्रिंटर के पकड़े जाने और उसकी रिहाई के बदले में कांग्रेस रेडियो की जगह का खुलासा करने के बाद इस ऑपरेशन का भंडाफोड़ हो गया था।

मेहता ने उस “यादगार दिन” को याद करते हुए कहा, “जब मैं ‘वंदे मातरम’ रिकॉर्ड कर रही थी, तो मैंने दरवाजे पर जोरदार दस्तक सुनी… मैंने पुलिस डिप्टी कमिश्नर के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों की एक बड़ी बटालियन को अंविजयी मुस्कान के साथ कमरे के अंदर प्रवेश करते देखा … पुलिस प्रमुख ने कहा… रिकॉर्डिंग बंद करो.. इस आदेश पर पूरा साहस जुटाते हुए, (मैंने) दृढ़ता से उत्तर दिया, ‘रिकॉर्ड बंद नहीं होगा। यह हमारा राष्ट्रीय गीत है. इसलिए आप सभी सावधान रहें।”

उषा मेहता की गिरफ्तारी

कांग्रेस रेडियो के प्रसारण के आखिरी दिन 50 से अधिक पुलिसवाले तीन बंद दरवाजों को तोड़कर घुस आए थे। मेहता और एक अन्य कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया; अगले दिनों में दो अन्य पकड़े गए।

लंबी जांच और पांच सप्ताह की सुनवाई के बाद, मेहता को मार्च 1946 तक पुणे की यरवदा जेल में जेल में रखा गया।

उषा ने बाद में कहा था, “मैं जेल से एक खुश और कुछ हद तक गौरवान्वित व्यक्ति के रूप में वापस आई, क्योंकि मुझे बापू (गांधी) के संदेश, ‘करो या मरो’ को पूरा करने और स्वतंत्रता के लिए अपनी विनम्र शक्ति का योगदान देने की संतुष्टि थी।”

राष्ट्रवादी मीडिया ने उन्हें “रेडियो-बेन” कहकर सम्मानित किया।

स्वतंत्रता, पीएचडी, और पद्म विभूषण

1947 में जब भारत को आजादी मिली, तो अंग्रेजों ने देश को दो हिस्सों – भारत और पाकिस्तान में बांट दिया था, जिससे इस क्षेत्र में अराजकता फैल गई थी। विभाजन की वजह से बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और 1 करोड़ से अधिक हिंदू, मुस्लिम और सिख अपना घर ढूंढना चाह रहे थे। यह इतिहास का सबसे बड़ा प्रवासन था।

मेहता इससे टूट गई थीं। उन्होंने बाद में एक इंटरव्यू में कहा था, “एक तरह से मैं बहुत खुश थी, लेकिन साथ ही विभाजन के कारण दुखी भी थी। यह एक स्वतंत्र भारत था लेकिन एक विभाजित भारत था।”

अपने खराब स्वास्थ्य के कारण वह स्वतंत्र भारत में सक्रिय राजनीति से दूर थीं लेकिन अंत तक कट्टर गांधीवादी बनी रहीं।

द न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, उन्होंने रेडियो स्टेशन पर अपने सहकर्मी द्वारा निर्मित गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट लिखी थी और बॉम्बे यूनिवर्सिटी से गांधीवादी विचार में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

उन्होंने राजनीति विज्ञान पढ़ाया और विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग की अध्यक्षता की थी। उन्होंने 30 वर्षों तक विल्सन कॉलेज में भी पढ़ाया था। मेहता गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष भी थीं।

1998 में, उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

रिपोर्ट के अनुसार, वह एक साधारण जीवन जीती थीं, बस में यात्रा करती थीं और खादी (हाथ से बुना हुआ कपड़ा पहनती थीं, जो गांधी के समय में अवज्ञा का प्रतीक बन गया था। उन्होंने कभी शादी नहीं की या उनके बच्चे नहीं थे।

11 अगस्त 2000 को 80 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

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